अपहरण कर
बेचा गया बाज़ार मैं
बेटियां थी ।।
कोख से बाज़ार तक का सफर,
घिनोना, अंधकार भरा
लज्जित हुई, छिन्न-भिन्न हुई ।।
सोलाह गज़ की चार दीवारें,
आकाश छिपा सा, ढका सा
बन्दी बनी।
लाट एक , जिस से बाहर झाँके तो सन्नाटा ।।
रोज़ अलग, बदलते मुखोटे,
जानवर, नोचते जो बोटियाँ,
करते प्राहार
उनकी अनुभूति पे,
उन्के होने पे ।
मात्र केवल असहाय ही नही
मादा होने की दोषी भी है येह बेटियां ।।
खरीदते है कोडी के मोल,
पर जानते नही,
कि एक एक अनुभूति का मोल नही लगा सकते येह नर, येह जानवर ।।
~ ध्रुव मरहट्टा
This could touch me. Keep Writing. Bold and Beautiful.
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Thanks Nikita.
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Very well expressed 👌 …. keep writing …. will wait for the next …👏
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Thanks Divya Dessai.
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You speak your heart out and at the same time make us realise the reality of world around us.
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Thank You so much.
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Too good… keep writing!!
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Thanks bro.
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